ऐ खुदा ! ये कैसा दौर मेरी उमर से गुजरा
कि मैंने, अपनी कब्र को खुद ही सजाया है !
मैंने हजारो गज की ईमारत बनाई, इस जहाँ में
आखिर तो दो गज का आशियाँ ही पाया है !
दुनिया में रौशन करने चले थे नाम अपना
पत्थर के चंद टुकडो में अपना नाम खुदवाया है !
कोई और नहीं था चराग रौशन करने को
आज देखो मैंने अपने ही कब्र में चराग जलाया है !
महफ़िल तो थी मगर गैरों की, माटी दे रहे थे वो
और मैंने खुद ही धुल का गुलदस्ता बनाया है !
बेदाद होगा गर जिक्र न हो इस मिटटी का !
जिससे मैने जिस्म पाया और जिसमे मेरा जिस्म समाया है !!
सोच रहा था अब तलक, हमने जिया जिंदगी को
कोई क्या जाने की,जिंदगी को अभी मैंने पाया है !
जब तक थे जिन्दा रोते रहे
ऐ - खुदा ! अब, तूने जमकर मुझे हसाया है !
दुखती रग पे तूने रखी हात, ख्वाहिश सारी ख़त्म हुई,
चश्में-ऐ -तस्सली, निगाहों से जो पिलाया है !!
कसम से कितनी तारीफ करू तेरी ?
मुर्शद ने दी रौशनी, और अपना इल्म कराया है !
कितना आजमाता तू , अब बारी हमारी!
ज़ाहिर करने आप को ,तूने अपने को मुझसे आजमाया है!!
परेशानियाँ क्या परेशां करेंगी मुझे,
कि अब कुछ, ऐसा हौसला पाया है !
हर पल तू ही दिखे ,तेरा ही रंग-ए -जहाँ ये !
हर कतरे में हूँ मैं ,तूने ऐसा खबर कराया है !!
Theme: A ballad presenting a monks life before death, that is attaining oneself before material death.
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