मानव मन के भिन्न रंग है
हर के अन्दर उठे तरंग है
मन तरंग में आज द्वंद्व है
येही वो मन जो करे विध्वंश है !
जब हो प्रिये के साथ
है अनुरागी मेरा मन
हो तल्लीन जब भाव में
निर्विकार सा है मेरा मन
माँ के अंचल में छूप जाता
है निश्चल सा मेरा मन !
और गरिमा से उठता ये
जब देश धर्म की बात हो
है तरल सा, बने लौह सा
जब अड़चन की रात हो !
कभी सकुचाता कभी घबराता
स्नेहित हो प्रेम दिखाता
तुलना में ना कम किसी से
प्रज्ञा को भी मात दे जाता
है चोरो को सरताज तू !
करे स्वतंत्र चिंतन की बांते
सबसे बड़ा है निंदक तू
कभी लाल्स्मय कभी लालायित
कभी अग्नि सा उद्वेग तू !
कभी व्यभिचारी कभी अहंकारी
कभी निराकारी और कभी निसंग तू
कितना करे बखान विनय अब
ढल गयी पूरी शाम यूँ !
है अनंत इस मन की शक्ति ..
कैसे इसका ज्ञान हो
करो सको तो वश में कर लो
गर मानव की जात हो!
Theme: Human Mind.World is not controlled by any one it's a wonderful, dreadful mind.poem describes the mask man MIND
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